संगीत की परिभाषा एवं उसकी पद्धतियां [2024]

नमस्कार दोस्तों, इस पोस्ट में आप लोग यह जान पाएंगे कि संगीत की परिभाषा क्या है एवं इसकी पद्धतियां कौन सी हैं? यह एक महत्वपूर्ण टॉपिक है जो कि लगभग सभी संगीत संबंधी परीक्षाओं जैसे UGC NET( पेपर 2 संगीत) , UPTET ( Music ), REET, CTET, MPTET ( वर्ग 2 व 3 संगीत शिक्षक ), KVS ( Music), Music यूनिवर्सिटी एग्जाम्स में कई बार पूछा जा चुका है। आइए जानते हैं संगीत क्या है ?
संगीत की परिभाषा
कला हमारे भावों को व्यक्त करनें का एक माध्यम है; और यदि हम संगीत बात करें तो यह ललित कला के अंतर्गत आता है, संगीत में कोई भी गायक, वादक या नृत्यकला में निपुण कलाकार अपने भावों को गीत, लय तथा ताल के माध्यम से लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
कला का प्राण भावों की अभिव्यक्ति है अर्थात् अपने अंदर के भावों को प्रकट करना। अलग-अलग कलाकार, अलग-अलग माध्यम से अपनी कला को प्रदर्शित करता है माध्यम बदलाव करनें से कला के नाम में भी बदलाव आ जाता है जैसे चित्रकार रंगों के माध्यम से अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है, एक कवि अपनी कविताओं से और संगीतकार ( गायक-वादक) अपने गीतों तथा लय के माध्यम से अपनी कला का प्रस्तुतिकरण करतें हैं।
संगीत रत्नाकर के अनुसार संगीत की परिभाषा,
गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगीतमुच्यते |
गीत, वाद्य और नृत्य यह तीनों मिलकर ही संगीत कहलाते हैं वास्तविकता में यह तीनों कलाएँ ( गाना बजाना और नाचना ) एक दूसरे से स्वतंत्र हैं, लेकिन स्वतन्त्र होने के बाद भी; वादन, गायन पर तथा नृत्य, वादन तथा गायन पर निर्भर है। प्राचीनकाल में इन तीनों कलाओं का प्रयोग एक साथ ही अधिकतर हुआ करते थेl सामान्य बोल-चाल की भाषा में संगीत का तात्पर्य केवल गायन समझा जाता है, किन्तु वास्तव में संगीत गायन, वादन तथा नृत्य का सम्मलित रूप है।
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भारत की संगीत-पद्धतियाँ –
भारत में संगीत की दो पद्धतियां प्रचलित हैं – उत्तरी संगीत पद्धति तथा दक्षिणी अथवा कर्नाटक पद्धति।
उत्तर भारतीय संगीत पद्धति :-
इसे हिंदुस्तानी संगीत भी कहा जाता है, भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो प्रमुख परंपराओं में से एक है। यह परंपरा मुख्यतः उत्तर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल में प्रचलित है। इसकी उत्पत्ति वेदों में वर्णित सामवेद से मानी जाती है। यह पद्धति दक्षिण भारतीय कर्नाटक संगीत से भिन्न है और मध्यकालीन सूफी प्रभाव, फारसी और मुगल संस्कृति से भी प्रभावित रही है।
विशेषताएँ –
1. राग और ताल पर आधारित : उत्तर भारतीय संगीत राग (स्वरों के संयोजन) और ताल (लयबद्ध संरचना) पर आधारित होता है।
2. गायन और वादन : इस पद्धति में गायन शैली जैसे खयाल, ध्रुपद, ठुमरी, टप्पा, और वादन शैली जैसे सितार, सरोद, तबला और बांसुरी महत्वपूर्ण हैं।
3. मुद्रित परंपरा से मौखिक परंपरा : हिंदुस्तानी संगीत मुख्यतः गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से मौखिक रूप से संप्रेषित होता है।
4. विशेष राग समय सिद्धांत : इस परंपरा में रागों को दिन के विशेष समय के अनुसार गाया/बजाया जाता है।
महत्वपूर्ण घराने –
उत्तर भारतीय संगीत में विभिन्न घरानों का बड़ा योगदान है, जैसे:
ग्वालियर घराना, किराना घराना, जयपुर-अतरौली घराना, बनारस घराना, पटियाला घराना
आधुनिक योगदान – पंडित रविशंकर, उस्ताद अमजद अली खान, उस्ताद विलायत खान, पंडित भीमसेन जोशी और उस्ताद बिस्मिल्लाह खान जैसे कलाकारों ने इसे विश्व पटल पर पहचान दिलाई।
दक्षिण भारतीय संगीत :-
इसे कर्नाटक संगीत कहा जाता है, भारतीय शास्त्रीय संगीत की दूसरी प्रमुख परंपरा है। यह मुख्य रूप से भारत के दक्षिणी राज्यों- तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल में प्रचलित है। यह परंपरा अत्यंत प्राचीन है और वेदों व पुराणों से गहराई से जुड़ी हुई है।
दक्षिण भारतीय संगीत की खास बातें:
1. राग और ताल:
कर्नाटक संगीत भी राग (माधुर्य और भाव के आधार पर स्वरों का समूह) और ताल (लय की संरचना) पर आधारित है।
राग को मेलकर्ता प्रणाली के माध्यम से व्यवस्थित किया गया है, जिसमें 72 मूल राग शामिल हैं।
ताल का बहुत सटीक और गहन उपयोग होता है।
2. मूल रूप से भक्ति प्रधान:
कर्नाटक संगीत में भक्ति का गहरा प्रभाव है। अधिकांश रचनाएँ भगवान विष्णु, शिव, देवी और अन्य देवताओं की स्तुति में होती हैं।
3. गायन और वादन:
गायन कर्नाटक संगीत का केंद्र है। इसमें वादन का उद्देश्य गायन को समर्थन देना होता है। प्रमुख वाद्य यंत्रों में वीणा, मृदंगम, वायलिन, नागस्वरम, और घटम शामिल हैं।
4. प्रमुख रचनाकार:
तीन महान संत-संगीतज्ञ त्यागराज, मुत्तुस्वामी दीक्षितर, और श्यामा शास्त्री ने कर्नाटक संगीत की नींव को और मजबूत किया। उनकी रचनाएँ आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं।
5. गुरु-शिष्य परंपरा:
इस संगीत को सिखाने का पारंपरिक तरीका गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित है। इसमें विद्यार्थी अपने गुरु के साथ रहकर संगीत की गहराई सीखता है।
6. कोनसर्ट (कच्चेरी) शैली:
कर्नाटक संगीत के प्रदर्शन में कच्चेरी पद्धति लोकप्रिय है, जिसमें प्रस्तुति एक सुव्यवस्थित क्रम में होती है, जैसे:
वर्णम: शुरुआत का राग।
कीर्तन: भक्ति गीत।
रागम-तानम-पल्लवी: प्रदर्शन का मुख्य भाग।
तिल्लाना: समापन गीत।
कर्नाटक संगीत और जीवन:
यह संगीत न केवल मनोरंजन का माध्यम है, बल्कि यह आत्मा को शुद्ध करने और शांति प्रदान करने का साधन माना जाता है। यह जीवन को भक्ति, कला और अध्यात्म से जोड़ता है।
दक्षिण भारतीय संगीत ने हमेशा भारतीय संस्कृति और परंपरा को समृद्ध किया है। इसे सुनने और समझने में गहराई और धैर्य की आवश्यकता होती है, लेकिन एक बार आप इसे महसूस करते हैं, तो यह आपके दिल को छू लेता है।
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